रोग नियंत्रण परियोजनाएं
ब्रूसेला नियंत्रण पर प्रायोगिक परियोजना
• एनडीडीबी 2013 से ब्रूसेला नियंत्रण परियोजना को क्रियान्वित कर रहा है। कार्यान्वयन प्रोटोकॉल के मानकीकरण के लिए परियोजना को तीन चरणों में लागू किया गया है:
क. क्षेत्रीय स्थिति में - गुजरात के कच्छ, खेड़ा, आणंद और महिसागर जिलों के लगभग 573 गांवों में
ख. वीर्य केंद्रों के आसपास, जो रोग मुक्त वीर्य के उत्पादन के संदर्भ में महत्वपूर्ण है
ग. संगठित डेरी पशु झुंड में
परियोजना के प्रमुख घटक हैं:
• हितधारकों के बीच जागरूकता का सृजन और विस्तार
• टीकाकरण और कान में टैगिंग द्वारा टीकाकृत पशु की अनिवार्य रूप से पहचान
• गांवों में मिल्क रिंग टेस्ट/आरबीपीटी और एलिसा द्वारा सीरो-मॉनिटरिंग
• संक्रमित परिसरों का कीटाणुशोधन/संक्रमित सामग्री के निपटान और संक्रमित पशु के प्रबंधन पर प्रदर्शन
• उपयोग में आसानी के लिए फ्लिंडर्स टेक्नोलॉजी एसोसिएट (FTA) कार्ड का उपयोग करके ब्रूसेलोसिस संदिग्ध सैंपलों के परिवहन को लागू करने के लिए कार्यान्वयन का क्षेत्र परीक्षण किया जा रहा है।
• इस्तेमाल में आसान पेन-साइड डायग्नोस्टिक परीक्षण अर्थात लेटरल फ्लो ऐशे (एलएफए) का उपयोग करना ।
• जूनोटिक रोग होने के नाते, इस बीमारी को नियंत्रित करने के लिए मानव डॉक्टरों, पशु चिकित्सकों, पशुपालन कार्मिकों, पशुधन किसानों और अन्य हितधारकों के बीच संबंध स्थापित कर वन हेल्थ दृष्टिकोण को अपनाना, यह मानव कल्याण के लिए काफी उपयोगी है । कई रोग के लक्षण वाले किसानों और ब्रूसेलोसिस से पीड़ित पशुपालन कार्मिकों का उपचार कर उनको ठीक किया गया है।
• परिणाम बताते हैं कि इस सफल क्षेत्र मॉडल का अनुकरण देश के अन्य हिस्सों में किया जा सकता है जहां ब्रूसेलोसिस एक बड़ी चिंता का विषय है ।
थनैला नियंत्रण लोकप्रियता कार्यक्रम (एमसीपीपी)
• यह परियोजना अक्तूबर 2014 में गुजरात के साबरकांठा दूध संघ में शुरू की गई थी जिसमें 50 डेरी सहकारी समितियों को शामिल किया गया था, बाद में इस परियोजना को 25 दूध संघों और उत्पादक कंपनियों के आसपास के 1500 से अधिक गांवों में विस्तारित किया गया था।
• इस परियोजना का उद्देश्य, उप-नैदानिक थनैला, जो इस बीमारी का एक ऐसा रूप है जो थनैला के नैदानिक रूप से अधिक नुकसान का कारण बनता है और इसका पता लगाना और उपचार किसानों को किस प्रकार मदद कर सकता है, के महत्व को उजागर करना है
• यह थनैला सहित गोवंशीय पशुओं में कई सामान्य बीमारियों के प्रबंधन के लिए “परम्परागत पशु चिकित्सा औषधि” (ईवीएम) जैसे किफायती, प्रभावकारी और किसान सहायक विकल्पों को अपनाकर, दवा विशेष रूप से एंटीबायोटिक दवाओं के विवेकपूर्ण उपयोग पर भी विशेष ध्यान देता है ।
• इस समग्र मॉडल को अंतरराष्ट्रीय मंचों जैसे आईडीएफ और ओआईई पर विकासशील देशों के लिए एक लंबे समय तक चलने वाले मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया गया है ।
संक्रामक गोवंशीय राइनोट्रेकाइटिस के नियंत्रण पर प्रायोगिक योजना
• अत्यधिक प्रभावित क्षेत्रों और फार्मों में रोग को नियंत्रित करने के लिए, निष्क्रिय मार्कर आईबीआर वैक्सीन की प्रभावकारिता को प्रदर्शित करने के लिए 3 राज्यों के 11 गांवों और गुजरात में एक संगठित क्षेत्र में कार्यान्वित किया गया ।
• कंपैनियन परीक्षण का उपयोग करके टीका लगे पशुओं को संक्रमित पशुओं से अलग किया जा सकता है ।
• क्षेत्र और फार्म दोनों में अत्यधिक प्रभावित परिस्थितियों में 90 प्रतिशत से अधिक टीका लगे पशु इस बीमारी से सुरक्षित रहे ।
एफएमडी नियंत्रण के लिए पशु रोग नियंत्रण परियोजना (एडीसीपी) - केरल
• इस परियोजना में केरल के 11 जिले शामिल हैं (जिन्हें एफएमडी-सीपी में शामिल नहीं किया गया था।)
• मार्च 2009 तक सभी अतिसंवेदनशील प्रजातियों (गाय, भैंस, भेड़, बकरी और सुअर) को शामिल करते हुए सामूहिक टीकाकरण के पांच दौर पूरे किए गए।
• 1998-2004 की अवधि के दौरान, प्रकोपों, प्रभावित पशुओं और पशु मृत्यु दरों की पूर्व परियोजना औसत क्रमशः 611, 8225 तथा 92 थी ।
• परियोजना चरण (2004-09) के दौरान इसके औसत आंकड़ों में क्रमशः 91, 816 और 41 तक की काफी कमी आई।
• एनडीडीबी (24.98 करोड़), जीओके (6.96 करोड़) और भारत सरकार (2.24 करोड़) के योगदान के साथ कुल परियोजना की लागत रू. 34.18 करोड़ थी।
• किसानों और सरकार के योगदान के साथ बनाए गए कॉर्पस से रोग नियंत्रण के लिए एक आत्मनिर्भर मॉडल स्थापित किया गया था ।
• परियोजना अवधि (मार्च 2009) के अंत तक उपर्युक्त अंशदान से रु. 17.15 करोड़ का एक कोष बनाया गया था।
एफएमडी प्रायोगिक योजना, ऊटी
• इस प्रायोगिक योजना की शुरुआत वर्ष 1982 में ऊटी, नीलग्रिस जिला, तमिलनाडु में की गई थी।
• इसके परिणामों से उत्साहित होकर परियोजना को तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल के आसपास के 29 जिलों में विस्तारित किया गया ।
• प्रायोगिक परियोजना 1985 में समाप्त हुई और इसके बाद भारत सरकार द्वारा खुरपका एवं मुंहपका रोग नियंत्रण कार्यक्रम (FMD-CP) का मार्ग प्रशस्त हुआ ।